इलाहाबाद बूढ़ा हो रहा, अब वो बात कहाँ,
जहाँ गंगा-यमुना का मिलन, शब्दों का वरदान था।
कभी जहाँ हर चौपाल पे कविताओं का बोलबाला,
आज वहाँ सन्नाटों ने डेरा डाला।
निराला के शब्दों का संग्राम जहाँ गूंजा था,
माहौल में माखनलाल चतुर्वेदी का आलाप था।
सुमित्रानंदन पंत की रचना का जोश,
अब वहाँ बस सूखा पड़ा, न कोई होश।
जहाँ बिस्मिल्ला खान की शहनाई की गूंज थी,
हर कण में संगीत की मधुर धुन थी।
हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला का रस,
आज वहाँ सूख चुका, खामोशी का वास।
कहीं अकबर इलाहाबादी के तीखे शेर,
जिनसे जागता था समाज का विवेक।
वहीं आज खामोश गलियाँ, न आवाज़ का रंग,
इलाहाबाद बूढ़ा हो रहा, खो रहा अपना ढंग।
कहाँ वो क्लासिकल संगीत की महफिलें,
जहाँ सुर-लय-ताल की सजी सजावटें।
कहाँ वो गंगा किनारे की साहित्य की गूंज,
अब खो गईं यादों में, छूटा हर जुंज।
कभी जो था काव्य का धाम,
अब वहाँ है केवल खंडहरों का नाम।
इलाहाबाद, तुम्हें जगाने की है जरूरत,
फिर से भरने को तेरे अतीत की गरिमा।
तुम बूढ़े नहीं, बस थके हो शायद,
तुम्हारे अंदर अब भी है आग, हिम्मत का आगाज़।
उठो, फिर से लिखो वो गीत, वो ग़ज़ल, वो राग,
इलाहाबाद, तुम्हारा भविष्य अब भी शानदार होगा एक दिन, यही है अभिलाष।
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